प्रस्तुत रचना वर्ष 1975 में मालवा समाचार में प्रकाशित हो चुकी है, जिसके लिए लेखक को रूपये 8/- का मनीआर्डर भी आया था।
” जो दफ्न हो गये कबर में “
जो दफ्न हो गये कबर में, आयेंगें नहीं कभी नजर में
दी आंसूओं से जिन्हें बिदाई, अजीजों से हुई न रूसवाई।।
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हो नहीं सकता अब मिलाप, अक्सर याद आयेंगे बे हिसाब
जज्व हो गया है अब नसीब, करेगे याद हर दिल अजीज।।
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जाते घाट में अमीर गरीब, खेल किस्मत का है अजीब
भूलते बुराई बाद मरने के, जुबां पर रहती है चतुराई।।
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बना रखा है लोगों ने उसूल, जन्नत हुई किस्मत को कबूल
इस मरघट से अरमानों ने, पाया है सम्मान इन्सानों ने।।
द्वारा
श्री जुगलकिशोर गढ़वाल
रिटायर्ड शिक्षक
कुक्षी (जिला-धार)
सम्पर्क – 99931-19854
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